भारतीय सेना हमेशा ही देश के दुश्मनों के दांत खटे करने के साथ साथ शांति काल मे किसी भी प्रकार के आपात संकट से निबटने के लिए हमेशा ही तैयार रहती हैं। भारतीय सेना ने 1965 के पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध मे भी दुश्मन सेना को नाको चने चबवा दिए थे। इसी युद्ध मे भारतीय सेना के अधिकारी लेफ्टिनेंट कर्नल ए॰ बी॰ तारापोर (अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर) सेवा संख्यांक IC-5565 ने अद्वितीय साहस व वीरता का परिचय देते हुए देश के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया। भारतीय सेना के इस अधिकारी का जन्म 18 अगस्त 1923 को वर्तमान की मुंबई, (बंबई प्रेसीडेंसी, ब्रिटिश राज) में हुआ।
अर्देशिर, जनरल रतंजीबा के परिवार से थे जिन्होंने शिवाजी की सेना का नेतृत्व किया था और उन्हें 100 गांवों से सम्मानित किया गया था जिसमें तारापोर मुख्य गांव था, जहां से परिवार का नाम आता है। बाद में अर्देशिर के दादा हैदराबाद में स्थानांतरित हुए और हैदराबाद के निज़ाम के उत्पाद शुल्क विभाग में काम करना शुरू कर दिया।
जब अर्देशिर काफी छोटे थे तब उन्होंने अपनी बहन यादगार को परिवार की गाय से बचाया। सात साल की उम्र में उन्हें पुणे में सरदार दस्तूर लड़कों के बोर्डिंग स्कूल भेजा गया। 1940 में 17 वर्ष की आयु में उन्होंने अपना मैट्रिक पूरा किया। स्कूल के बाद इन्होंने सेना के लिए आवेदन किया और चयनित हुए। उन्होंने अधिकारियों के प्रशिक्षण स्कूल गोलकोण्डा में अपना प्रारंभिक सैन्य प्रशिक्षण किया और पूरा होने के बाद बैंगलोर भेजा गया। बाद में 7वीं हैदराबाद इन्फैन्ट्री में उन्हें एक सेकंड लेफ्टिनेंट के रूप में नियुक्त किया गया था।हैदराबाद के भारत में विलय के बाद इन्हें भारतीय सेना की पूना हॉर्स में स्थानान्तरित कर दिया गया।
“अदी” नाम से लोकप्रिय अर्देशिर पैदल सेना में शामिल होने से नाखुश थे, क्योंकि वह एक बख़्तरबंद रेजिमेंट में शामिल होना चाहते थे। एक दिन इनकी बटालियन का निरीक्षण मेजर जनरल अल इदरूस, हैदराबाद राज्य बलों के कमांडर-इन-चीफ द्वारा किया गया। दुर्घटना वश ग्रेनेड रेंज में एक जीवित ग्रेनेड कड़ी क्षेत्र में गिर गया था। अदी ने इसे जल्दी से उठाया और फेकने का प्रयास किया किन्तु ग्रेनेड ने विस्फोट कर दिया और अदी घायल हो गए। मेजर जनरल इदरूस इस घटना के साक्षी थे, और अनुकरणीय साहस से प्रभावित हुए। उन्होंने अर्देशिर को अपने कार्यालय में बुलाया और उनके प्रयासों के लिए उन्हें बधाई दी। अर्देशिर को एक बख़्तरबंद रेजिमेंट में स्थानांतरण के अनुरोध करने का मौका मिल गया जिसे इदरूस द्वारा मान लिया गया और 1 हैदराबाद इम्पीरियल सर्विस लान्सर्स में स्थानांतरित कर दिया गया। ऑपरेशन पोलो के दौरान पूना हार्स से लड़े, उनकी बाद की यूनिट भी थी। इन्होंने अपने करियर के इस भाग के दौरान द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पश्चिम एशिया में सक्रिय सेवा दी।
हैदराबाद को बाद में भारत संघ के साथ विलय कर दिया गया और इसकी सेना अंततः भारतीय सेना में मिल गयी। अर्देशिर को 1 अप्रैल 1951 की कमीशन तिथि के साथ पूना हार्स में स्थानांतरित कर दिया गया। वह 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में कमांडिंग ऑफिसर (सीओ) बन गए थे। पाकिस्तान में एक प्रमुख उद्देश्य को हासिल करने में अपनी रेजिमेंट का नेतृत्व करते किया।11 सितंबर 1965 को पूना हार्स रेजिमेंट ने चविंडह की लड़ाई के दौरान सियालकोट सेक्टर में फिलोरा पर हमला किया। फिलोरा और चविंडह के बीच, वज़ीरवली से पाकिस्तानी सेना के भारी बख्तरबंदों के साथ हमला हुआ। तारापोर ने लगातार दुश्मन टैंक और आर्टिलरी फायर के तहत फिलो पर हमला किया। घायल होने के बावजूद इन्होंने वहां से निकलने से मना कर दिया। उन्होंने अपनी रेजिमेंट का नेतृत्व करते हुए 13 सितंबर को वज़ीरवली और 16 सितंबर 1965 को जसोरन पर कब्जा कर लिया। हालांकि इनकी टैंक पर कई बार हमले हुए थे, परन्तु इन्होने इन दोनों स्थानों पर अपनी स्थिति को बनाए रखा, जिससे चविंडह पर हमला करने वाली पैदल सेना ने इनके नेतृत्व से प्रेरित होकर रेजिमेंट ने दुश्मन के टैंकों पर हमला किया और लगभग साठ टैंक नष्ट कर दिए बदले में तारापोर को भी अपने नौ टैंक गंवाने पड़े। बाद में तारापोर की टैंक को टक्कर मार दी गयी जिससे उसमे आग लग गयी और तारापोर वीरगति को प्राप्त हो गए।
इतिहास में यह युद्ध ऐसे युद्ध में दर्ज है जहाँ सबसे ज्यादा टैंक नष्ट हुए थे। लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर के अद्भुत शौर्य और वीरता भरे देश प्रेम को सम्मान देते हुए भारत सरकार ने वर्ष 1965 में इन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया जो 11 सितम्बर 1965 से प्रभावी हुआ।