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Home इतिहास और संस्कृति

नारी चेतना का स्वर – महादेवी वर्मा

param by param
Sep 18, 2023, 11:47 pm GMT+0530
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वे मुस्काते फूल नहीं, जिनको आता है मुर्झाना,
वे तारों के दीप नही, जिनको भाता है बुझ जाना।

इन पंक्तियों को जीवंत करती कवियित्री महादेवी उस फूल के ही समान हैं, जो कभी मुरझाई नहीं। महान कवियत्री महादेवी वर्मा का जन्म ऐसे समय में हुआ, जब साहित्य सष्जन के क्षेत्र में पुरुष वर्ग का वर्चस्व था; पर महादेवी ने केवल साहित्य ही नहीं, सामाजिक व राजनीतिक क्षेत्र में अपनी सशक्त उपस्थिति से समस्त नारी वर्ग का मस्तक गर्व से उन्नत किया। उन्होंने काव्य, समालोचना, संस्मरण, सम्पादन तथा निबन्ध लेखन के क्षेत्र में प्रचुर कार्य किया। इसके साथ ही वे एक अप्रतिम रेखा चित्रकार भी थीं।
महादेवी वर्मा का जन्म 26 मार्च 1907 को होली वाले दिन उत्तर प्रदेश के फ़र्रुख़ाबाद में हुआ था। उनके परिवार में लगभग 200 वर्षों या सात पीढ़ियों के बाद पहली बार पुत्री का जन्म हुआ था। अतः दादा बाबू बाँके विहारी जी हर्ष से झूम उठे और उन्हें घर की देवी मानते हुए उनका नाम महादेवी रखा। महादेवी वर्मा के पिता श्री गोविन्द प्रसाद वर्मा एक वकील थे और माता का नाम श्रीमती हेमरानी देवी थीं। हेमरानी देवी बड़ी धर्म परायण, महादेवी वर्मा का जन्म 26 मार्च 1907 को होली वाले दिन उत्तर प्रदेश के फ़र्रुख़ाबाद में हुआ था। उनके परिवार में लगभग 200 वर्षों या सात पीढ़ियों के बाद पहली बार पुत्री का जन्म हुआ था। अतः दादा बाबू बाँके विहारी जी हर्ष से झूम उठे और उन्हें घर की देवी मानते हुए उनका नाम महादेवी रखा। महादेवी वर्मा के पिता श्री गोविन्द प्रसाद वर्मा एक वकील थे और माता का नाम श्रीमती हेमरानी देवी थीं। हेमरानी देवी बड़ी धर्म परायण, कर्मनिष्ठ, भावुक एवं शाकाहारी महिला थीं। महादेवी वर्मा के माता-पिता दोनों ही शिक्षा के अनन्य प्रेमी थे। महादेवी वर्मा को ‘आधुनिक काल की मीराबाई’ कहा जाता है। कवि निराला ने उन्हें “हिन्दी के विशाल मन्दिर की सरस्वती” भी कहा है। महादेवी ने स्वतन्त्रता के पहले का भारत भी देखा और उसके बाद का भी। वे उन कवियों में से एक हैं जिन्होंने व्यापक समाज में काम करते हुए भारत के भीतर विद्यमान हाहाकार, रुदन को देखा, परखा और करुण होकर अन्धकार को दूर करने वाली दृष्टि देने की कोशिश की। न केवल उनका काव्य बल्कि उनके सामाजसुधार के कार्य और महिलाओं के प्रति चेतना भावना भी इस दृष्टि से प्रभावित रहे। उन्होंने मन की पीड़ा को इतने स्नेह और शृंगार से सजाया कि दीपशिखा में वह जन-जन की पीड़ा के रूप में स्थापित हुई और उसने केवल पाठकों को ही नहीं समीक्षकों को भी गहराई तक प्रभावित किया।

अपने बचपन की जीवनी “मेरे बचपन के दिन” में वर्मा ने लिखा है कि वह एक उदार परिवार में पैदा होने के लिए बहुत भाग्यशाली थीं, विशेष कर तब जब जब एक लड़की को परिवार पर बोझ माना जाता था। उनके दादा की कथित तौर पर उन्हें एक विद्वान बनाने की महत्वाकांक्षा थी। यदि कोई इस बारे में पूछता, तो वे कहती थीं कि मैं होली पर जन्मी हूं, इसीलिए तो इतना हँसती हूँ। होली सबकी प्रसन्नता का पर्व है, उस दिन सबमें एक नवीन उत्साह रहता है, वैसी सब बातें मुझमें हैं। महादेवी जी की माता जी पूजा-पाठ के प्रति अत्यधिक आग्रही थीं, जबकि पिताजी अंग्रेजी प्रभाव के कारण इनमें विश्वास नहीं करते थे। फिर भी दोनों ने जीवन भर समन्वय बनाये रखा। इसका महादेवी के मन पर बहुत प्रभाव पड़ा।

महादेवी को जीवन में पग-पग पर अनेक विडम्बनाओं का सामना भी करना पड़ा, फिर भी वे विचलित नहीं हुईं। इनकी चर्चा उन्होंने अपने संस्मरणों में की है। महादेवी हिन्दी की प्राध्यापक थीं; पर उन्होंने अंग्रेजी साहित्य का भी गहन अध्ययन किया था। उनकी इच्छा वेद, पुराण आदि को मूल रूप में समझने की थी। इसके लिए वे अनेक विद्वानों से मिलीं; पर अब्राह्मण तथा महिला होने के कारण कोई उन्हें पढ़ाने को तैयार नहीं हुआ। काशी हिन्दू विष्वविद्यालय ने तो उन्हें किसी पाठ्यक्रम में प्रवेष देना भी उचित नहीं समझा। इसकी पीड़ा महादेवी वर्मा को जीवन भर रही।

महादेवी वर्मा कोमल भावनाओं की संवाहक थीं। सात वर्ष की अवस्था में उन्होंने पहली कविता लिखी थी – आओ प्यारे तारे आओ, मेरे आँगन में बिछ जाओ। रूढ़िवादी परिवार में जन्मी होने के कारण उनकी नौ वर्ष की अवस्था में स्वरूप नारायण वर्मा से शादी कर दी जाती है। नारायण जी उस समय 10वीं के छात्र थे। महादेवी का विवाह जब हुआ था तब वे विवाह का मतलब भी नहीं समझती थीं। उनको ये भी पता नहीं था कि उनका विवाह हो रहा है। पर उनकी इच्छा पढ़ने और आगे बढ़ने की थी। इसलिए उन्होंने *ससुराल की बजाय शिक्षा का मार्ग चुना।

1930 में, निहार, 1932 में, रश्मि, 1933 में, नीरजा की रचना उनके द्वारा की गई थी। 1935 में, संध्यागीत नामक उनकी कविताओं का संग्रह प्रकाशित हुआ था। 1939 में, यम शीर्षक के तहत उनकी कलाकृतियों के साथ चार काव्य संग्रह प्रकाशित किए गए थे। इनके अलावा, उन्होंने 18 उपन्यास और लघु कथाएँ लिखी थीं जिनमें मेरा परिवार, स्मृति की राहे, पथ के साथी श्रींखला के करिये (श्रृंखला की कड़ी) और अतित के चलचरितो प्रमुख हैं। उन्हें भारत में नारीवाद की अग्रदूत भी माना जाता है।
वर्मा का करियर हमेशा लेखन, संपादन और शिक्षण के इर्द-गिर्द घूमता रहा। उन्होंने इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस प्रकार की जिम्मेदारी उस समय महिला शिक्षा के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी कदम माना जाता था। वे इसकी प्राचार्य भी रह चुकी हैं। 1923 में, उन्होंने महिलाओं की प्रमुख पत्रिका चांद को संभाला। 1955 में वर्मा ने इलाहाबाद में साहित्यिक संसद की स्थापना की और इलाचंद्र जोशी की मदद से इसके प्रकाशन का संपादन किया। उन्होंने भारत में महिला कवि सम्मेलनों की नींव रखी।

1932 में उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. किया। महादेवी ने संपूर्ण जीवन प्रयाग में ही रहकर साहित्य की साधना की और आधुनिक काव्य जगत को अपने योगदान से आलोकित किया। अपने काव्य में उपस्थित विरह वेदना और भावनात्मक गहनता के चलते ही उन्हें आधुनिक भारत की मीराबाई कहा जाता है। वे उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाना चाहती थीं; पर गांधी जी ने उन्हें नारी शिक्षा के क्षेत्र में काम करने को प्रेरित किया। अतः उन्होंने प्रयाग में महिला विद्यापीठ महाविद्यालय की स्थापना की, जिसकी वे 1960 में कुलपति नियुक्त हुईं।

महीयसी महादेवी के मन पर गांधी जी का व्यापक प्रभाव था। बापू गुजराती और अंग्रेजी बहुत अच्छी जानते थे, फिर भी वे प्रायः हिन्दी में बोलते थे। महादेवी ने जब इसका कारण पूछा, तो उन्होंने कहा कि हिन्दी भारत राष्ट्र की आत्मा को सहज ढंग से व्यक्त कर सकती है। तब से ही महादेवी वर्मा ने हिन्दी को अपने जीवन का आधार बना लिया। वे महाप्राण निराला को अपना भाई मानकर उन्हें राखी बाँधती थीं। उनके विशाल परिवार में गाय, हिरण, बिल्ली, गिलहरी, खरगोष, कुत्ते आदि के साथ-साथ लता और पुष्प भी थे। अपने संस्मरणों में उन्होंने इन सबकी चर्चा की है।
उन्होंने साहित्यकारों की सहायता के लिए प्रयाग में ‘साहित्यकार संसद’ बनाई। संवेदनशील होने के कारण बाढ़ आदि प्राकृतिक प्रकोप के समय वे पीड़ितों की खुले दिल से सहायता करती थीं।

महादेवी वर्मा, मानव मन की भावनाओं को जिकर उन्हें शब्दों में पिरोती थीं। यह उनकी रचनाओं में देखने को मिलता था। उनकी उन जीवंत रचनाओं और समाजिक कार्यों के लिए उन्हें प्रशासनिक, अर्धप्रशासनिक और व्यक्तिगत सभी संस्थाओं से विभिन्न पुरस्कार व सम्मान मिले। उनमें से कुछ प्रमुख पुरस्कार और सम्मान इस प्रकार हैं –
1943 में उन्हें ‘मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ एवं ‘भारत भारती’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद 1952 में वे उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्या मनोनीत की गयीं। 1956 में भारत सरकार ने उनकी साहित्यिक सेवा के लिये ‘पद्म भूषण’ की उपाधि दी।

1971 में साहित्य अकादमी की सदस्यता ग्रहण करने वाली वे पहली महिला थीं। 1988 में उन्हें मरणोपरांत भारत सरकार की पद्म विभूषण उपाधि से सम्मानित किया गया।
सन 1969 में विक्रम विश्वविद्यालय, 1977 में कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल, 1980 में दिल्ली विश्वविद्यालय तथा 1984 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी ने उन्हें डी.लिट की उपाधि से सम्मानित किया। इससे पूर्व महादेवी वर्मा को ‘नीरजा’ के लिये 1934 में ‘सक्सेरिया पुरस्कार’, 1942 में ‘स्मृति की रेखाएँ’ के लिये ‘द्विवेदी पदक’ प्राप्त हुए। ‘यामा’ नामक काव्य संकलन के लिये उन्हें भारत का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्राप्त हुआ। वे भारत की 50 सबसे यशस्वी महिलाओं में भी शामिल हैं।

1968 में सुप्रसिद्ध भारतीय फ़िल्मकार मृणाल सेन ने उनके संस्मरण ‘वह चीनी भाई’ पर एक बांग्ला फ़िल्म का निर्माण किया था जिसका नाम था नील आकाशेर था। 16 सितंबर 1991 को भारत सरकार के डाकतार विभाग ने जयशंकर प्रसाद के साथ उनके सम्मान में 2 रुपये का एक युगल टिकट भी जारी किया है।
उनकी बहुचर्चित कृति ‘यामा’ पर उन्हें प्रतिष्ठित ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ दिया गया था। नारी चेतना, संवेदना और हिंदी साहित्य की इस महानतम कवियित्री का स्वर 11 सितम्बर, 1987 को सदा के लिए मौन हो गया।

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