आजादी के संघर्ष का इतिहास लिखे जाने के समय नाइंसाफी का शिकार होने वालों में एक ऐसा क्रांतिकारी भी था, जिसके साथी ने गद्दारी नहीं की होती और अगर उसका प्लान कामयाब हुआ होता तो देश 32 साल पहले ही यानी 1915 में आजाद हो गया होता। उस दौर का हीरो था वो, जब अंग्रेजों के खौफ में लोग घरों में भी सहम कर रहते थे, वो जहां अंग्रेजों को देखता, उन्हें पीट देता था। बलिष्ठ देह के स्वामी यतीन्द्रनाथ मुखर्जी साथियों के बीच बाघा जतिन के नाम से मशहूर थे।
जतीन्द्र नाथ मुखर्जी का जन्म जैसोर जिले में 7 दिसम्बर 1879 में हुआ था। पाँच वर्ष की अल्पायु में ही उनके पिता का देहावसान हो गया। पिता की मौत के बाद मां शरतशशि ने अपने मायके में बड़ी कठिनाई से इनका लालन-पालन किया। उनकी मां कवि स्वभाव की थीं, और वकील मामा के क्लाइंट रवीन्द्रनाथ टैगोर के साथ उनके परिवार का अक्सर मिलना होता था। जतिन पर इस सबका बहुत प्रभाव पड़ा।शुरू से ही उनकी रुचि फिजिकल गेम्स में रही, स्विमिंग और घुड़सवारी के चलते वो बलिष्ठ शरीर के स्वामी बन गए। 11 साल की उम्र में ही उन्होंने शहर की गलियों में लोगों को घायल करने वाले बिगड़ैल घोड़े को काबू किया, तो लोगों ने काफी तारीफ की। 18 वर्ष की आयु में उन्होंने मैट्रिक पास कर, परिवार के जीविकोपार्जन हेतु स्टेनोग्राफी सीखकर कलकत्ता विश्वविद्यालय से जुड़ गए। कलकत्ता सेंट्रल कॉलेज में स्वामी विवेकानंद से संपर्क हुआ जिससे इनके अंदर ब्रहम्चारी रहकर देश के लिए कुछ करने की इच्छा तेज हुई। 1899 में मुजफ्फरपुर में बैरिस्टर पिंगले के सेक्रेटरी बनकर पहुंचे, जो बैरिस्टर होने के साथ-साथ एक इतिहासकार भी था, जिसके साथ रहकर जतिन ने महसूस किया कि भारत की एक अपनी नेशनल आर्मी होनी चाहिए। शायद यह भारत की नेशनल आर्मी बनाने का पहला विचार था। जो बाद में मोहन सिंह, रास बिहारी बोस और सुभाष चंद्र बोस के चलते अस्तित्व में आई। दिलचस्प बात है कि जिस कॉलेज में जतिन पढ़े, आज उसी कलकत्ता सेंट्रल कॉलेज का नाम खुदीराम बोस कॉलेज है। घरवालों के दवाब में जतिन ने शादी कर ली। लेकिन पहले बेटे की अकाल मौत के चलते आंतरिक शांति के लिए जतिन ने भाई और बहन के साथ मिलकर हरिद्वार की यात्रा की। लौटकर आए तो पता चला कि उनके गांव में एक तेंदुए का आतंक है, तो वो उसे जंगल में ढूंढने निकल पड़े, लेकिन सामना हो गया रॉयल बंगाल टाइगर से। वो खतरनाक बाघ देखकर ही कोई सदमे से मर जाता, लेकिन जतिन ने उसको अपनी खुखरी से मार डाला। बंगाल सरकार ने एक समारोह में सम्मानित किया। इस घटना के बाद यतीन्द्रनाथ “बाघा जतीन” नाम से विख्यात हो गए थे।
1905 में ब्रिटेन के राजकुमार प्रिंस ऑफ वेल्स जब कलकत्ता में का दौरा हुआ। प्रिंस ऑफ वेल्स का स्वागत जुलूस निकल रहा था। एक गाड़ी की छत पर कुछ अंग्रेज बैठे हुए थे, और उनके जूते गाड़ी में बैठी महिलाओं के बिलुकल मुंह पर खिड़कियों पर लटक रहे थे। जिससे जतिन भड़क गए और उन्होंने अंग्रेजों से उतरने को कहा, लेकिन वो नहीं माने तो ऊपर चढ़ गए बाघा जतिन और एक-एक करके सबको तब तक पीटा जब तक कि सारे नीचे नहीं गिर गए। इस घटना से तीन बड़े काम हुए। अंग्रेजों के भारतीयों के प्रति व्यवहार के बारे में उनके शासकों के साथ-साथ दुनियां को भी पता चला, भारतीयों के मन से उनका खौफ निकला और बाघा जतिन के नाम के प्रति क्रांतिकारियों के मन में सम्मान और भी बढ़ गया।
तमाम सामाजिक कामों और क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए धन जुटाने की खातिर जतिन ने भारत में एक नया तरीका ईजाद किया, जिसके बारे में अंग्रेजी इतिहासकारों ने लिखा है ‘बैंक रॉबरी ऑन ऑटोमोबाइल्स टैक्सी कैब्स’। कई हथियारों की खेप जतिन की लीडरशिप में लूट ली गईं। लेकिन जतिन का नाम सामने नहीं आता था। सीक्रेट सोसायटी की इन्हीं दिनों भारतीयों पर अन्याय करने वाले सरकारी अधिकारियों चाहे अंग्रेज हों या भारतीयों को मारने का ऑपरेशन भी शुरू कर दिया, लेकिन एक सरकारी वकील और अंग्रेज डीएसपी को खत्म किया गया, तो एक क्रांतिकारी ने जतिन का नाम उजागर कर दिया। इसी स्प्रिट को बाद में इतिहासकारों ने ‘जतिन स्प्रिट’ का नाम दिया। जतिन को डीएसपी के मर्डर के आरोप में गिरफ्तार किया गया, फिर जाट रेजीमेंट वाली हावड़ा कॉस्पिरेसी के आरोप में गिरफ्तार किया गया, राजद्रोह का आरोप लगाया गया। जितने दिन जतिन पर ट्रायल चला उतने दिन जतिन ने साथी कैदियों के सहयोग से अपने संपर्क एक नए प्लान में लगाए। ये शायद उनकी जिंदगी का सबसे बड़ा प्लान था, देश को आजाद करवाने का प्लान। इधर जतिन की कई सीक्रेट समितियों में अंग्रेज कोई कनेक्शन साबित नहीं कर पाए और जतिन को छोड़ना पड़ा।
कलकत्ता में उन्हीं दिनों जर्मनी के राजा की यात्रा हुई, नरेन भट्टाचार्य के साथ जतिन उनसे मिले और वायदा लिया कि हथियारों की बड़ी खेप की सप्लाई उनके विद्रोह के लिए जर्मनी सप्लाई करेगा। इधर, अंग्रेजों ने राजधानी 1912 में बदल ही ली। रास बिहारी बोस और विश्वास ने हाथी के ऊपर बैठकर दिल्ली में घुसते गर्वनर लॉर्ड हार्डिंग के ऊपर चांदनी चौक में बम फेंका तो जतिन के लिए भी उस साल मुश्किल हो गई, रास बिहारी अंडरग्राउंड हो गए। 1913 में जब दामोदर नदी में बाढ़ आई तो जतिन ने बड़े पैमाने पर राहत कार्य शुरू किए, रास बिहारी भी उनकी मदद के लिए आ गए। दोनों ने मिलकर 1857 जैसा विद्रोह फिर से करने की योजना बनाई। सुभाष चंद्र बोस से पहले रास बिहारी ने जतिन में ही असली नेता पाया था। जतिन का औरा भी इंटरनेशनल था। जतिन दुनियां भर में फैले भारतीय क्रांतिकारियों के संपर्क में थे। सिएटल, पोर्टल, बैंकूबर, सैन फ्रांसिस्को हर शहर में क्रांतिकारी तैयार हो रहे थे। लाला हरदयाल और श्यामजी कृष्ण वर्मा लंदन और अमेरिका में आंदोलन की आग जिंदा जलाए हुए थे। पुरे देश में 1857 जैसे सिपाही विद्रोह की योजना बनाई गई। फरवरी 1915 की अलग-अलग तारीखें तय की गईं, पंजाब में 21 फरवरी को 23 वीं कैवलरी के सैनिकों ने अपने ऑफीसर्स को मार डाला। लेकिन उसी रेंजीमेंट में एक विद्रोही सैनिक के भाई कृपाल सिंह ने गद्दारी कर दी और विद्रोह की सारी योजना सरकार तक पहुंचा दी। सारी मेहनत एक गद्दार के चलते मिट्टी में मिल गई। गदर पार्टी के कई नेताओं को गिरफ्तार कर लिया, काला पानी की सजा दी गई। लेकिन बाघा जतिन अभी भी अंडरग्राउंड रहकर क्रांतिकारियों के बीच एक्टिव थे, योजना बनी कि जर्मनी से जो हथियार आएंगे वो अप्रैल 1915 में उड़ीसा का बालासोर तट पर उतरेंगे, वहां से तीस किलोमीटर दूर मयूरभंज में जतिन को भेजकर अंडरग्राउंड कर दिया गया। इधर जतिन ने नरेन भट्टाचार्य यानी एमएन रॉय को जर्मनी के अधिकारियों के पास हथियारों की बातचीत के लिए भेजा, उनको बताया गया कि हथियारों की खेप निकल चुकी है, लेकिन एक चेक जासूस इमेनुअल विक्टर वोस्का, जो डबल एजेंट भी था, अमेरिका के लिए भी काम करता था, को भनक लगी और उसने सारा खेल खराब कर दिया। 9 सितंबर 1915 को पुलिस ने जतींद्र नाथ का गुप्त अड्डा ‘काली पोक्ष’ (कप्तिपोद) ढूंढ़ निकाला। यतींद्र बाबू साथियों के साथ वह जगह छोड़ने ही वाले थे कि राज महन्ती नमक अफसर ने गाँव के लोगों की मदद से उन्हें पकड़ने की कोशश की। बढ़ती भीड़ को तितरबितर करने के लिए यतींद्र नाथ ने गोली चला दी। राज महन्ती वहीं ढेर हो गया। राज महन्ती के मरने पर जिला मजिस्ट्रेट किल्वी दल बल सहित वहाँ आ पहुंचा। यतीश नामक एक क्रांतिकारी बीमार था। जतींद्र उसे अकेला छोड़कर जाने को तैयार नहीं थे। चित्तप्रिय नामक क्रांतिकारी उनके साथ था। दोनों तरफ़ से गोलियाँ चली। चित्तप्रिय वहीं शहीद हो गया। वीरेन्द्र तथा मनोरंजन नामक अन्य क्रांतिकारी मोर्चा संभाले हुए थे। इसी बीच यतींद्र नाथ का शरीर गोलियों से छलनी हो चुका था। वह जमीन पर गिर कर ‘पानी-पानी’ चिल्ला रहे थे। मनोरंजन उन्हें उठा कर नदी की और ले जाने लगा। तभी अंग्रेज अफसर किल्वी ने गोलीबारी बंद करने का आदेश दे दिया। गिरफ्तारी देते वक्त जतींद्र नाथ ने किल्वी से कहा- ‘गोली मैं और चित्तप्रिय ही चला रहे थे। बाकी के तीनों साथी बिल्कुल निर्दोष हैं। ‘इसके अगले दिन 10 सितंबर को भारत की आज़ादी के इस महान सिपाही ने अस्पताल में सदा के लिए आँखें मूँद लीं।