भारत को स्वतंत्रता दिलाने में कई बहुत सारे क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की आहुति देते हुए ना केवल भावी क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणास्रोत बने बल्कि तात्कालिक समाज में स्वतंत्रता आन्दोलन में आहुति देने हेतु करोड़ों भारतवासियों के लिए आदर्श स्रोत भी थे। ऐसे ही क्रांतिकारियों में से एक थे ‘जतिंद्र नाथ दास’। मात्र 24 वर्ष की अवस्था में ही जतिंद्र नाथ दास ने अंग्रेजों के क्रूरता के विरुद्ध राजनीतिक बंदियों के अधिकारों के लिए अनशन करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे दी। हिंदुस्तान के क्रान्तिकारी इतिहास में क्रांतिकारी यतीन्द्र नाथ का नाम सदैव अमर रहेगा , वो एक ऐसा वीर था , जिसे समूची ब्रिटिश हूकूमत भी न झुका सकी थी , उन्होंने देश की स्वाधीनता के संघर्ष में भूख हड़ताल के माध्यम से तिल तिल कर मौत की ओर बढ़कर आत्म बलिदान की जो प्रखर जीवटता दिखायी थी, वह तो अहिंसा के महान अनुयायियों में भी नहीं थी।
शहीद जतिन्द्रनाथ दास का जन्म 27 अक्टूबर 1904 को बंगाल के वर्तमान कोलकाता में हुआ था। उनके पिता जी का नाम बंकिम बिहारी दास तथा माता का नाम सुहासिनी देवी था। जतीन्द्र नौ वर्ष के थे, तभी उनकी माता का स्वर्गवास हो गया। 1920 में जब जतिंद्रनाथ ने हाईस्कूल की परीक्षा पास कि उसी समय गांधी जी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन का प्रारंभ हुआ। देश के दूसरे युवाओं की तरह ही जतिंद्र नाथ ने भी असहयोग आंदोलन में भाग लिया। वह पहली बार 4 दिन के लिए जेल गए, फिर 1 माह 3 दिन जेल की सजा काटी। विदेशी कपड़ों के बहिष्कार कार्यक्रम में सहभागिता के दौरान इन्हें गिरफ्तार करके 6 माह के लिए जेल में डाल दिया गया। गांधीजी के असहयोग आंदोलन की वापसी से जतिन्द्रनाथ दास निराश हो गए थे लेकिन आगे चलकर उनकी मुलाकात क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल से हुई जिसके उपरांत वह क्रान्तिकारी संस्था ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ में शामिल हो गए। यहाँ जतिंद्र नाथ दास ने बम बनाने की कला सीखी एवं जल्द ही वह क्रांतिकारियों के बीच काफी लोकप्रिय हो गए। जतिन्द्रनाथ को पुनः ‘दक्षिणेश्वर बम कांड’ और ‘काकोरी कांड’ में संलिप्ता के कारण गिरफ्तार किया गया लेकिन इनके खिलाफ कोई सबूत नहीं मिलने के कारण इन्हें कुछ समय के लिए नजरबंद कर दिया गया। जेल में ब्रिटिश द्वारा कैदियों पर किए जा रहे दुर्व्यवहार पर जतिन नाथ दास ने राजनीतिक कैदियों के अधिकारों की बहाली के लिए भूख हड़ताल शुरू की। लगातार 21 दिन की भूख हड़ताल के उपरांत उनकी खराब सेहत के कारण ब्रिटिश के द्वारा इन्हें रिहा कर दिया गया।
आगे चलकर जतिंद्र नाथ दास सुभाष चंद्र बोस भगत सिंह के काफी करीब आ गए। यतीन्द्र नाथ दास ,भगत सिंह , राजगुरु , सुखदेव , आज़ाद , बटुकेश्वर दत्त आदि के साथ आगरा में बम फैक्ट्री स्थापित की । जतिंद्र नाथ दास ने पूरे देश में भ्रमण करते हुए बम बनाने की कला को सारे क्रांतिकारियों के बीच फैला दिया। आपको जानकर आश्चर्य होगा भगत सिंह ने केंद्रीय असेंबली में जिस बम को फेंका था वह बम जतिंद्रनाथ दास के द्वारा ही बनाया गया था। 1929 में लाहौर षडयंत्र केस में शामिल होने का आरोप लगाते हुए पुलिस की धर पकड़ तेज होने पर फणीश्वर नाथ घोष मुखबिर बन गए , उसकी शिनाख्त पर 14 जून 1929 को कलकत्ता के शरद बोस रोड के चौक से यतीन्द्र नाथ को भी गिरफ्तार किया गया और लाहौर भेज दिया गया। यतीन्द्र नाथ , भगत सिंह , बटुकेश्वर दत्त , सुखदेव, डॉ. गयाप्रसाद और अन्य क्रान्तिकारी सेंट्रल जेल लाहौर में बंद थे। भगतसिंह के आव्हान पर 13 जुलाई 1929 से जेल में क्रांतिकारियों के साथ दुर्व्यवहार, अधिकारों एवं ब्रिटिश कैदियों को दी जा रही सुविधाओं के बराबर भारतीय कैदियों को भी सुविधा प्रदान करने हेतु भूख हड़ताल शुरू कर दी। उस समय जेल में बंद भारतीय कैदियों स्थिति अत्यंत दुखदाई थी उदाहरण के लिए- जेल प्रशासन द्वारा उपलब्ध कपड़ों को काफी दिनों तक धुला न जाना, रसोई समेत बैरक की दयनीय स्थिति, जेल में अखबार किताबें इत्यादि पठनीय सामग्री न प्रदान करना को लेकर भूख हड़ताल आरम्भ कर दी , हालाँकि इसके पहले यतीन्द्र नाथ ने अपने पूर्व अनुभव के आधार पर साथियो को यह सचेत किया था कि अनशन द्वारा तिल तिल कर अपने आप को इंच इंच मौत की और सरकते हुए देखने से पुलिस की गोली का शिकार हो जाना या फांसी पर झूल जाना अधिक आसान होता है। एक बार अनशन शुरू होने के बाद वह पीछे नहीं हटे। जतिंद्र नाथ दास ने प्रण लिया कि “जब तक ब्रिटिश प्रशासन भारतीय कैदियों के साथ भेदभाव का बर्ताव करता रहेगा तब तक वह अपना अनशन जारी रखेंगे”। जतिंद्र नाथ के समर्थन में जेल में बंद काफी सारे कैदियों ने भी भूख हड़ताल प्रारंभ किया। अंग्रेजों ने उनकी भूख हड़ताल तुड़वाने का काफी कोशिश की, लेकिन वे सफल नहीं हो सके। अंग्रेजों के द्वारा दी गयी प्रताड़ना में शारीरिक बल प्रयोग, पागलों के डॉक्टर से प्रताड़ित करना, नाक के रास्ते से दूध डालना इत्यादि शामिल था। अंग्रेजों की कठोर प्रताड़ना के बावजूद भी वे जतिंद्रनाथ दास का प्रण नहीं तोड़ सके। कुछ दिनों बाद जब उन्हें दबोचकर बलात दूध पिलाने की कोशिश की गयी ,तो डॉक्टर की लापरवाही से पेट की जगह उनके फेफड़ों में दूध चला गया, दिन पर दिन उनकी हालत बिगड़ती जा रही थी, फिर भी उन्होंने अनशन तोड़ने और दवा लेने से मना कर दिया, यहाँ तक कि उन्होंने जमानत पर छूटने से भी इंकार कर दिया। उनके अंतिम समय में छोटे भाई किरन् दास को बुलाया गया। उच्च आदर्श और राष्ट्रीय स्वाभिमान के धनी यतीन्द्र नाथ दास का जीवन दीप बुझने की कगार पर था, अंततः भूख हड़ताल के 63 वें दिन वह जेल में अपने सब साथियो से अंतिम बार मिले। 13 सितंबर 1929 को अपने आमरण अनशन के 63 वें दिन जतिंद्रनाथ अपने देश के लिए कुर्बान हो गए लेकिन उन्होंने अपना प्रण नहीं तोडा। अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले जतिंद्र नाथ दास ने अपने छोटे भाई किरन और मित्र विजय कुमार सिन्हा से ‘एकला चलो रे’ गाने का अनुरोध किया। भारत माता का यह महान सपूत स्वाधीनता की बलिवेदी पर शहीद हो गया, सेंट्रल जेल के अंग्रेज जेलर ने फौजी सलाम से उन्हें सम्मान दिया और लाहौर के डिप्टी कमिश्नर हैमिल्टन ने भी उनके सम्मान में अपना हैट उतार लिया था।
नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने जतिंद्र नाथ दास जी के पार्थिव शरीर को लाहौर से कलकत्ता लाने के लिए रेल के विशेष कूपे की व्यवस्था की, तो उनकी अंतिम यात्रा का नेतृत्व दुर्गा भाभी के द्वारा करते हुए पार्थिव शरीर को लाहौर से कलकत्ता ट्रेन से ले जाया गया। इस दौरान रस्ते में जहां जहां ट्रेन रुकती वहां-वहां लोगों की भीड़ भारत माता के इस वीर सपूत के अंतिम दर्शन को उमड़ पड़ी। कलकत्ता में उन्हें अद्वितीय सम्मान मिला। उनकी लोकप्रियता इतनी थी कि उनकी अंतिम शव यात्रा में कोलकाता में 2 किलोमीटर लंबी भीड़ थी और 5 लाख से अधिक लोगो का जन सैलाब उमड़ पड़ा था। सुभाष चंद्र बोस ने उनके संघर्षों के कारण उन्हें ‘भारत का युवा दधीची’ कहा। इस प्रकार जतिंद्र नाथ दास जेल में आमरण अनशन से स्वतंत्रता आंदोलन में अपना बलिदान देने वाले महान क्रांतिकारी बन जाते हैं तो वही वह जेल में कैदियों के अधिकारों की बात करने वाले लोगों की अग्रिम पंक्ति में भी शुमार हो जाते हैं। ऐसे ही महान देशभक्तों के त्याग और बलिदान से हम आज स्वाधीन भारत में सकून से है, क्रांतिवीर यतीन्द्र नाथ दास को बलिदान दिवस पर शत शत नमन।