भोपाल: मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में वर्ष 1984 में दो-तीन दिसंबर की रात को हुई विश्व की भीषणतम औद्योगिक त्रासदी को लोग अब तक भूल नहीं पाए हैं. अब भी यहां के लोग इसका दंश झेलने को मजबूर हैं. यूनियन कार्बाइड कारखाने से जहरीली गैस मिथाइल आइसोसाइनेट का रिसाव हुआ और हजारों लोग मौत के मुंह में चले गए थे. मंगलवार, 3 दिसंबर को इस भीषणतम त्रासदी की 40वीं बरसी है, लेकिन अब तक न तो पीड़ितों को न्याय मिल पाया है और न ही यूनियन कार्बाइड परिसर में पड़े कचरे को नष्ट नहीं किया जा सका है. निकट भविष्य में भी इसके निपटान की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही है.
विषैली गैस के सम्पर्क में आने वाले लोगों के परिवारों में इतने वर्षों बाद भी शारीरिक और मानसिक रूप से अक्षम बच्चे जन्म ले रहे हैं. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक गैस त्रासदी से 3787 की मौत हुई और गैस से करीब 5,58,125 लोग प्रभावित हुए थे. हालांकि कई एनजीओ का दावा रहा है कि मौत का यह आंकड़ा 10 से 15 हजार के बीच था. बहुत सारे लोग कई तरह की शारीरिक अपंगता से लेकर अंधेपन के भी शिकार हुए. विभिन्न अनुमानों के मुताबिक करीब आठ हजार लोगों की मौत तो दो सप्ताह के भीतर ही हो गई थी जबकि करीब आठ हजार अन्य लोग रिसी हुई गैस से फैली संबंधित बीमारियों के चलते मारे गए थे.
कैसे हुआ हादस ?
यूनियन कार्बाइड की फैक्टरी से करीब 40 टन गैस का रिसाव हुआ था. इसकी वजह थी टैंक नंबर 610 में जहरीली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का पानी से मिल जाना था. इससे हुई रासायनिक प्रक्रिया की वजह से टैंक में दबाव पैदा हो गया. इससे टैंक खुल गया और गैस रिसने लगी. लोगों को मौत की नींद सुलाने में विषैली गैस को मात्र तीन मिनट लगे थे.
क्या बनता था इस कारखाने में-
यूनियन कार्बाइड कारखाने में कारबारील, एल्डिकार्ब और सेबिडॉल जैसे खतरनाक कीटनाशकों का उत्पादन होता था. संयंत्र में पारे और क्त्रसेमियम जैसी दीर्घस्थायी और जहरीली धातुएं भी इस्तेमाल होती थीं. सरकार का कृषि विभाग उन कीटनाशकों का एक बड़ा खरीददार था. भोपाल कारखाने से कीटनाशकों का निर्यात दूसरे देशों को किया जाता था और उससे भारत को निर्यात शुल्क की आय होती थी. जानकारों का कहना है कि कीटनाशकों की आड़ में यह कारखाना कुछ ऐसे प्रतिबंधित घातक एवं खतरनाक उत्पाद भी तैयार करता था, जिन्हें बनाने की अनुमति अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों में नहीं थी.
40 वर्ष बाद भी धरती के नीचे दफन है जहरीला कचरा-
भोपाल गैस त्रासदी के 40 वर्ष 3 दिसंबर को पूरे होने जा रहे हैं, पर इतने वर्ष बाद भी जहरीला कचरा यूनियन कार्बाइड परिसर में दफन है. इस कारण भूजल प्रदूषित होने की बात सत्यापित हो चुकी है. वर्ष 2018 में इंडियन इंस्टीट्यूट आफ टाक्सिकोलाजी रिसर्च लखनऊ की रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आ चुका है. रिपोर्ट के अनुसार यूनियन कार्बाइड परिसर के आसपास की 42 बस्तियों के भूजल में हेवी मेटल, आर्गनो क्लोरीन पाया गया था, जो कैंसर और किडनी की बीमारी के लिए जिम्मेदार हो सकते हैं. इसके बाद इस क्षेत्र में नर्मदा जल की आपूर्ति सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर की जा रही है. आशंका है इन कालोनियों के अतिरिक्त प्रदूषित भूजल आगे पहुंच गया हो पर वर्ष 2018 के बाद जांच ही नहीं कराई गई.
राज्य सरकार ने कुछ साल पहले यूनियन कार्बाइड परिसर में पड़े लगभग 350 मी टन कचरे का निपटान गुजरात के अंकलेश्वर में करने का निर्णय लिया था और उस समय गुजरात सरकार भी इसके लिए तैयार हो गई थी, लेकिन गुजरात की जनता द्वारा इसको लेकर आंदोलन किए जाने के बाद गुजरात सरकार ने कचरा वहां लाए जाने से इनकार कर दिया. इसके बाद सरकार ने प्रदेश के धार जिले के पीथमपुर में कचरा नष्ट करने का निर्णय लिया और 40 मी. टन कचरा वहां जला भी दिया, लेकिन यह मामला प्रकाश में आने के बाद यहां विरोध में किए गए आंदोलन के बाद स्वयं मध्य प्रदेश सरकार ने इससे अपने हाथ खींच लिए.
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने नागपुर में डीआरडीओ स्थित इंसीनिरेटर में कचरे को नष्ट करने के आदेश दिया, लेकिन महाराष्ट्र के प्रदूषण निवारण मंडल ने इसकी अनुमति नहीं दी और महाराष्ट्र सरकार ने भी नागपुर में कचरा जलाने से इनकार कर दिया. प्रदेश सरकार ने एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट की शरण ली और न्यायालय ने नागपुर स्थित इंसीनिरेटर के निरीक्षण के आदेश दिए, लेकिन न्यायालय को यह बताया गया कि वहां स्थित इंसीनिरेटर इतनी बड़ी मात्रा में जहरीला कचरा नष्ट करने में सक्षम नहीं है. सरकार द्वारा महाराष्ट्र के कजोला में भी कचरा नष्ट करने पर विचार किया गया, लेकिन प्रदूषण निवारण मंडल द्वारा अनुमति नहीं दिये जाने से यह मामला ठंडे बस्ते में चला गया. जिससे आज तक परिसर में पड़ा हजारों टन कचरा जहां था वहीं आज भी पड़ा है.
इस कचरे के होने से जहां भूमिगत प्रदूषण फैल रहा तो वहीं कई प्रकार की बीमारियां भी बनी रहती हैं. भोपाल ग्रुप फॉर इंफॉर्मेशन एंड एक्शन के सदस्यों का कहना है कि दुनिया की सबसे बड़ी गैस त्रासदी का असर आज भी दिख रहा है. भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आइसीएमआर) के अधीन संस्था नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च ऑन एनवायरमेंटल हेलट ने एक शोध में यह पाया था कि जहरीली गैस का दुष्प्रभाव गर्भवती महिलाओं पर भी पड़ा. इसके कारण बच्चों में जन्मजात बीमारियां हो रही हैं. उन्हेंने आरोप लगाते हुए कहा कि आइसीएमआर की रिपोर्ट सरकार ने प्रकाशित ही नहीं होने दी, बल्कि रिपोर्ट को दबा लिया गया. जहरीली गैस का दुष्प्रभाव गर्भवती महिलाओं पर भी पड़ा. इसके कारण बच्चों में जन्मजात बीमारियां हो रही हैं. आईसीएमआर की रिपोर्ट सरकार ने प्रकाशित ही नहीं होने दी. रिपोर्ट को दबा लिया गया.
यूनियन कार्बाइड के जहरीले कचरे के कारण आस-पास का भूजल मानक स्तर से 562 गुना ज्यादा प्रदूषित हो गया. कारखाने में और उसके चारों तरफ तकरीबन 10 हजार मीट्रिक टन से अधिक कचरा जमीन में आज भी दबा हुआ है. बीते कई सालों से बरसात के पानी के साथ घुलकर अब तक 14 बस्तियों की 50 हजार से ज्यादा की आबादी के भूजल को जहरीला बना चुका है. सीएसई के शोध में परिसर से तीन किलोमीटर दूर और 30 मीटर गहराई तक जहरीले रसायन पाए गए.
गैस पीड़ित संगठन के कार्यकर्ताओं का दावा है कि रैपिड किट से उन्होंने इनके अतिरिक्त कारखाने की साढ़े तीन किमी की परिधि में आने वाली 29 अन्य कालोनियों में भी जांच की तो आर्गनो क्लोरीन मिला है, पर कितना मात्रा में है इसकी जांच बड़े स्तर पर सरकार द्वारा कराने की आवश्यकता है.
गैस पीड़ितों के लिए काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता रचना ढींगरा ने बताया कि त्रासदी के पहले परिसर में ही गड़्ढे बनाकर जहरीला रासायनिक कचरा दबा दिया जाता था. इसके अतिरिक्त परिसर में बनाए गए तीन छोटे तालाबों में भी पाइप लाइन के माध्यम जहरीला अपशिष्ट पहुंचाया जाता था. इस कचरे की कोई बात ही नहीं हो रही. कारखाने में रखे कचरे को नष्ट करने के लिए 126 करोड़ रुपये खर्च किए जा रहे हैं. इसे पीथमपुर में जलाया जाना है.
गैर राहत विभाग के उप सचिव केके दुबे का कहना है कि यूनियन कार्बाइड परिसर में प्लांट में रखे कचरे को नष्ट करने के लिए सभी अनुमतियां मिल गई हैं. इस जल्द नष्ट करने के लिए भेजा जाएगा. इसके बाद ही जमीन में गड़े कचरे के बारे में विचार किया जाएगा. विभाग के पास ऐसी कोई रिसर्च भी नहीं है कि जमीन में कितना कचरा दबा है और उससे क्या नुकसान हो रहा है.
पुनर्वास के लिए मिली राशि में 14 वर्ष बाद खर्च नहीं हो पाए 129 करोड़ रुपये-
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर गैस पीड़ितों के पुनर्वास के लिए वर्ष 2010 में 272 करोड़ रुपये स्वीकृत किए गए थे. इसमें 75 प्रतिशत राशि केंद्र व 25 प्रतिशत राज्य सरकार की थी. इसमें भी 129 करोड़ रुपये आज तक खर्च नहीं हो पाए हैं. गैस राहत एवं पुनर्वास विभाग आज तक इस राशि को खर्च करने की योजना ही नहीं बना पाया है. आर्थिक पुनर्वास के लिए 104 करोड़ रुपये मिले थे. इसमें 18 करोड़ रुपये स्वरोजगार प्रशिक्षण पर खर्च हुए बाकी राशि बची है. सामाजिक पुनर्वास के लिए 40 करोड़ रुपये मिले थे, जिसमें गैस पीड़ितों की विधवाओं के लिए पेंशन का भी प्रविधान है. 4399 महिलाओं को पेंशन मिल रही हैं. वर्ष 2011 से यह राशि एक हजार है जिसे बढ़ाया नहीं गया है. न ही किसी नए हितग्राही को शामिल किया गया है.
गौरतलब है कि वर्ष 1984 में मप्र की राजधानी भोपाल में 02 और 03 दिसंबर की दरम्यानी रात्रि में यूनियन कार्बाइड कारखाने की गैस के रिसाव से हजारों लोगों की मौत हो गई थी और लाखों लोग इससे प्रभावित हुए थे. हजारों प्रभावित आज भी उसके दुष्प्रभाव झेलने को मजबूर हैं. उस त्रासदी को 40 साल हो चुके हैं, लेकिन पीड़ितों के जख्म आज भी हरे हैं. एक शोध में यह तथ्य सामने आया है कि भोपाल गैस पीड़ितों की बस्ती में रहने वालों को दूसरे क्षेत्रों में रहने वालों की तुलना में किडनी, गले तथा फेफड़ों का कैंसर 10 गुना ज्यादा है. इसके अलावा इस बस्ती में टीबी तथा पक्षाघात के मरीजों की संख्या भी बहुत ज्यादा है. इस गैस त्रासदी में पांच लाख से भी ज्यादा लोग प्रभावित हुए थे, जिनमें से हजारों लोगों की मौत तो मौके पर ही हो गई थी और जो जिंदा बचे, वे विभिन्न गंभीर बीमारियों के शिकार होकर जीवित रहते हुए भी पल-पल मरने को विवश हैं. इनमें से बहुत से लोग कैंसर सहित कई प्रकार की गंभीर बीमारियों से जूझ रहे हैं.
हिन्दुस्थान समाचार